गुरुवार, 29 सितंबर 2011

अगंभीर घटनाओं का गंभीर लेखक (आलोक कुमार सातपुते की रचनाओं पर विमर्श)

कृति विमर्श कार्यक्रम के अंतर्गत बीते दिनों लघुकथाकार आलोक कुमार सातपुते की अब तक प्रकाशित चार कृतियों पर विमर्श का आयोजन किया गया। कार्यक्रम जनता स्कूल, भिलाई-3 में हुआ। इस अवसर पर मराठी अनुवादक भीमराव गणवीर (नागपुर) और उड़िया अनुवादक हेमंत दलपित (उड़िया) विशेष रूप से उपस्थित थे। मुख्यअतिथि कथाकार लोकबाबू थे। प्रमुख वक्त के तौर पर धमतरी की शैल चंद्रा, रायपुर की वर्षा रावल, बिलासपुर के डा.अशोक शिरोडे, बलौदाबाजार के अनिल भतपहरी, भिलाई के छगनलाल सोनी, चंद्रिका मढ़रिया एवं कुम्हारी के सुरेश वाहने उपस्थित थे। श्री सातपुते की जिन कृतियों पर चर्चा हुई वे हैं-अपने अपने तालिबान, बैताल फिर डाल पर, मोहरा तथा बच्चा लोग बजाएगा ताली। इन कृतियों की समीक्षा करते हुए वक्ताओं ने कहा कि श्री सातपुते की कृतियां समाज में घटित सूक्ष्म घटनाओं की पड़ताल हैं। हालांकि इनमें से कुछ रचनाएं अगंभीर किस्म की भी हैं। इन कहानियों में करारा व्यंग्य है। ये कृतियां समाज की बेईमानी को रेखांकित करती हैं। वक्ताओं ने इन कृतियों को बड़े प्रकाशनों द्वारा प्रकाशित किए जाने को एक उपलब्धि बताया। 

रविवार, 25 सितंबर 2011

रंजना का दिल बना सलमा का गुर्दा

रंजना राठौड़
18 अक्टूबर 2006 को धनतेरस का दिन था। मुकुंद राठौर अपने हार्डवेयर की दुकान में बैठे थे। व दैनिक भास्कर में छपे एक विज्ञापन को देखकर भावुक हो उठे। दोपहर का वक्त होने के कारण उनकी पत्नी रंजना राठौड़ खाना लेकर पहुंची। विचारमग्न राठौड़ जी को देख उन्होंने अखबार अपनी ओर लेते हुए कहा-क्या खास बात हैं।
मुकुंद ने विज्ञापन की ओर संकेत किया-इसे पढ़ो।
दरअसल विज्ञापन में किडनी चाहिए शीर्षक से मार्मिक अपील छपी थी। नीचे नाम पता नहीं था। संपर्क के लिए केवल मोबाइल नम्बर प्रकाशित था। रंजना ने पूछा-क्या रक्तदान करने से मन नहीं भरा। कहीं किडनी दान के बारे में तो नहीं सोच रहे हो। मुकुंद ने सहमति से सिर हिलाते हुए कहा-मैंने सुना है कि मनुष्य एक किडनी में भी स्वस्थ रह सकता है। इस शरीर का क्या है, आज है कल नहीं। पर जीते-जी किसी के लिए शरीर का ऐसा अंग दान कर दें, जिसके बगैर जीवन चल सकता हो तो क्यों न किसी और को दान करके उसे जीवन दे दें हम। बी. पाजिटिव ग्रुप वाले की किडनी चाहिए।
उन्होंने इस बारे में डाक्टरों से राय ली। डाक्टर तो पहले यही पूछते थे कि किडनी क्यों दान करना चाहते हो। उन्हें पहली नजर में ऐसा लगता कि कहीं ये पैसों के लेन-देन का मामला तो नहीं। लेकिन जब डाक्टरों को राठोड़ परिवार की अच्छी हैसियत का पता चलता हो गलतफहमी दूर हो जाती। उन्हें यह जानकार आश्चर्य होता कि मात्र मानवीय सहायता के लिए वे किडनी दान करना चाहते हैं। ठीक वैसे ही जैसे वे अब तक रक्तदान करते आए हैं।
डाक्टरों ने उन्हें समझाया कि किडनी दान करने के बाद जीवन में ऐहितायत कितना जरूरी हो जाता है। कितनी सावधानी बरतनी पड़ती है। वे भारी सामान नहीं उठा पाएंगे। मोटर साइकिल नहीं चला पाएंगे, उन्हें धक्का-मुक्की से बचना होगा, गिरने से बचना होगा।  
रंजना को भी लगा कि उनके पति को शारीरिक मेहनत करनी पड़ती है। तब ये सावधानियां असंभव हो जाएंगी। लेकिन वह पति की इच्छा को टालना भी नहीं चाहती थी। तब रंजना ने स्वयं किडनी दान करने का सकल्प लेते हुए पति से चर्चा की। अंततः मुकुंद को रंजना की भावना का सम्मान करना पड़ा।
यह सब इतना आसान नहीं था। विज्ञापन में दिए नंबर पर संपर्क साधा गया। संपर्क करने से पता चला कि सलीमा को किडनी की जरूरत है। वह डायलिसिस पर थी। उसका एक मासूम बच्चा भी है, जिस देखकर रंजना का मनभर आया। घर के अन्य सदस्य दूसरे कारणों से किडनी नहीं दे पा रहे थे। सलीमा के पति इकबाल यदि किडनी देते तो उनका व्यवसाय संभालने वाला कोई नहीं था। इसीलिए उन्होंने अखबार में विज्ञापन दे दिया था। एक खास बात और कि मुकुंद स्वयं अपने व्यवसाय के सिलसिले में कुम्हारी से रायपुर आना-जाना करते थे, अतः वे एक-दूसरे से परिचित भी थे। लेकिन विज्ञापन में अधूरी जानकारी छपी होने के कारण पहचान नहीं पाए।
रंजना ने अपनी बात रखते हुए किडनी दान करने की इच्छा जाहिर की। सलीमा को जैसे जीवन में नई किरणें दिखाई देने लगी। इकबाल को तो विश्वास ही नहीं हुआ। लेकिन जब रंजना ने गंभीरता से कहा कि मैं अपनी किडनी देकर सलमा की जिंदगी बचाउंगी, तो इकबाल भावविभोर हो गए। उन्होंने पूछा कि इसके बदले आपकी क्या इच्छा है, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं, तो मुकुंद मुस्कुरा दिए। उन्होंने कहा-बदले में हमें कुछ नहीं चाहिए।
दुर्ग कलेक्टर द्वारा रंजना के परिवार के सदस्यों से रंजना की किडनी के दान की सहमति का शपथ पत्र लिया गया। जरूरी औपचारिक प्रक्रिया में डेढ़ साल लग गए। 7 जुलाई को सुबह 10 बजे कमलनयन बजाज हास्पिटल औरंगाबाद में सलीमा को आपरेशन थिएटर पर ले जाया गया। इसके बाद रंजना को। रंजना की किडनी सलमा को प्रत्यारोपित कर दी गई।
आइए रंजना और सलमा की लंबी उम्र के लिए दुआएं करें। रंजना के घर का पता -हाउसिंग बोर्ड कालोनी, जनता क्वार्टर नं.28, वार्ड नं.15, कुम्हारी, जिला दुर्ग, पिन-490042।
 इस ब्लाग पर यह आलेख
सुरेश वाहने
शिवनगर, कुम्हारी (दुर्ग)
मो.09301095646


सहयोग
आलोक कुमार सातपुते








बुधवार, 21 सितंबर 2011

उस खुद्दारी का हमसे गहरा नाता है (गुजरात के भूकंप की आंखों-देखी-3)

रायपुर, 6 फरवरी 2001 (देशबन्धु)।
-चलो भाइयों कच्छ चलो।
-कच्छ क्यों जाएं भाई, वहां आखिर धरा क्या है।
-आवड़-बावड़ ने बोरड़ी, व्या कंडा ने कक्ख
भाइयूं हलो कच्छड़े जिद माड़ू सवाया लख


(यह ठीक है कच्छ की धरती में बबूल और बेर जैसी कटिली झाड़ियों के अलावा ज्यादा कुछ नहीं है, नहीं भाई वहां का एक-एक आदमी सवा-सवा लाख का है)
इस लोकोक्ति में भी कच्छ के आदमी की कीमत बहुत कम आंकी गई है। वहां के एक-एक आदमी की खुद्दारी एवं जीजिविषा के सामने दुनिया की सारी दौलत फीकी पड़ जाती है। भूकंप से पूरी तरह तबाह हो जाने के बाद भी उन खुद्दारों ने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाए। कोई मदद के लिए आगे आ गया तो भी उनके हाथ मदद लेने के लिए हिचकते रहे। वे खुले आसमान के नीचे ठंड की कड़कड़ाती रात बिता रहे थे, फिर भी कहीं कोई शिकायत नहीं थी। मासूम बच्चों के पेट में भूख कुलबुला रही थी, प्यास गले को नोंच रही थी, फिर भी कोई शिकायत नहीं।
इन खुद्दारों से छत्तीसगढ़ की गहरी रिश्तेदारी है। भुज और भचाऊ के 40-50 किलोमीटर के दायरे में जो गांव हैं, उनमें से बहुत गांवों के बेटे छत्तीसगढ़ में आकर बस गए हैं। उन गांवों की बेटियां छत्तीसगढ़ की बहुएं बनकर भी आईं हैं। और छत्तीसगढ़ की बेटियों को उन गांवों में घर मिला है। अकेले रायपुर में गुजरातियों की अनुमानित संख्या 50 हजार होगी। इनमें से ज्यादातर उन्हीं इलाकों के हैं, जहां भूकंप ने कहर बरपाया है। भुज से 18 किलोमीटर पहले और मुख्य सड़क से 4 किलोमीटर भीतर की ओर देवजीलाल का बाड़ी विस्तार है। देवजीलाल के परिवार के कई और घर इसी बाड़ी विस्तार में बसे हुए हैं। इस इलाके में इस बाड़ी विस्तार को उमिया बाड़ी विस्तार के नाम से जाना जाता है। भूकंप के विध्वंस ने यहां के भी घरों को तबाह कर दिया। उमिया बाड़ी विस्तार की 2 बहुएं उसी दिन भचाऊ के अस्पताल में काल का ग्रास बन गईं। इनमें से एक दमयंती बेन रायपुर निवासी टिम्बर व्यवसायी मोहन भाई की सगी बहन थी। 25 जनवरी को दवरानी मंजूला बेन को लेकर दमयंती बेन भचाऊ अस्पताल गई थीं। उनके साथ मोहन भाई के भांजे यानी दमयंती बेन के बेटे गोविंदलाल भी थे। मंजूला बेन की तबियत कुछ खराब थी। डाक्टर ने जांच पड़ताल के बाद उन्हें उस दिन अस्पताल में ही ठहर जाने को कहा। 26 जनवरी की सुबह गोविंदलाल को गुटके की तलब हुई तो वे अस्पताल से बाहर निकल आए। वे गुटके-सिगरेट की दुकान तक पहुंचे भी नहीं थे कि धरती डोलने लगी और पीठ के ठीक पीछे अस्पताल भरभरा कर गिर पड़ा। बहुत से मरीजों, डाक्टरों, नर्सों के साथ-साथ दमयंती बेन और मंजूला बेन मलबे के नीचे दब गईं। क्षणभर में भचाऊ मलबे में बदल गया। जो मलबों के भीतर जिंदा थे चीख-पुकार रहे थे। और जो मलबों के बाहर सुरक्षित बच गए, इस अप्रत्याशित दृश्य को देखकर सहमे हुए थे। फिर भी बहुत से लोगों ने बहुत से लोगों को मलबे से बाहर निकालने की कोशिशें भी कीं। थोड़े से हाथ थे और शहरभर में मलबा। मंजूलाबेन अस्पताल के मलबे के भीतर 2 दिनों तक जिंदा रहीं। मलबे से उनकी आवाज बाहर आती रही। फिर वे शांत हो गईं...हमेशा-हमेशा के लिए शांत। जब मलबा हटाया गया तो पता चला कि मंजूला बेन के पैरों पर बीम पड़ी हुई थी। दमयंती बेन तो पहले दिन ही खामोश हो चुकी थीं।
उधर उमिया फार्म भी तबाह हो गया। 30 जनवरी को जब मैं रायपुर के पाटीदार समाज के राहत दल के साथ वहां पहुंचा तो हमने देखा कि उस संपन्न परिवार की महिलाएं एक तंबू जैसी जगह पर रसोई तैयार कर रही हैं। बाड़ी विस्तार के घरों की दीवारें औंधी पड़ी हैं। उस दिन तक वहां इन लोगों का हालचाल जानने कोई नहीं आया था। न तो सरकारी कर्मचारी और न ही कोई संस्था। जबकि इस फार्म से 4 किलोमीटर दूर भुज की ओर जाने वाली सड़क पर राहत सामग्री से लदी ट्रकों  और सेना की गाड़ियों की रेलमपेल मची हुई थी। ऐसे सभी वाहनों की दिशा भुज, भचाऊ, अंजार जैसे शहरों की ओर ही थी।
उमिया बाड़ी विस्तार के लिए तम्बुओं की तत्काल जरूरत थी। 4 दिन वे लोग कड़ाके की ठंड सहकर गुजार चुके थे। लेकिन उनमें से कोई भी न तो भुज गया, न भचाऊ, जहां राहत सामग्री का ढेर लगा हुआ था। रायपुर के राहत दल ने यदि खुद जाकर वहां का हालचाल न देखा होता तो शायद उन्हें कुछ और रातें बिना तंबुओं के गुजारनी पड़ती। यहां के राहत दल ने वहां बांस और दूसरे अन्य सामान बांटे। इस राहत दल के साथ मैं आगे भुज तक गया। वहां मुझे छो़ड़कर यह दल नखतराणा के दूसरे गांवों की ओर बढ़ गया। नखतराणा के उस इलाके में भी रायपुर की रिश्तेदारी पसरी हुई थी।
इधर, शहरों में दिखता था कि राहत सामग्री का ढेर लगा हुआ है। उधर, गांवों में खुली जगहों पर ठंड से ठिठुरते लोग नजर आते थे। रायपुर के राहत दल से अलग होकर अंजार और भचाऊ होता हुआ मैं 2 अन्य रिपोर्टरों के साथ बाड़ी विस्तारों की ओर लौटा। दरागा बाड़ी विस्तार में एक फार्म में भी ध्वंस का वही आलम था। यहां पर भूकंप से जयाबेन नाम की 33 साल की एक महिला की मौत हो गई थी। यहां पता चला कि यहां के निवासी हरीभाई के साढ़ू विश्राम शिवजी रायपुर में रहते हैं। कबराऊ बाड़ी विस्तार में 10 साल की बच्ची निशा बेन भूकंप में बुरी तरह घायल हो गई। यह दयाभाई खेमजी का बाड़ी विस्तार है, जहां उनके परिवार के 12 सदस्य रहते हैं। विध्वंस के बाद ये सभी खुले आसमान में दिन काट रहे थे। यह 1 फरवरी की बात है। यानी भूकंप के मुख्य झटके के 6 दिनों बाद की। यहां तक भी किसी तरह की कोई मदद नहीं पहुंची थी और न ही इन लोगों ने कहीं हाथ पसारे थे। इतनी बरबादी के बाद भी दयाभाई खेमजी का आतिथ्य के प्रति उत्साह कम नहीं हुआ। उन्होंने हमें बाड़ी विस्तार से तोड़कर पपीते खिलाए। दरागा बाड़ी विस्तार के ही पंचवटी फार्म में 3 घर थे। भूकंप में यहां के निवासी जयंती देवजीभाई की मां का हाथ फ्रेक्चर हो गया। जिस दिन हम इस बाड़ी विस्तार में पहुंचे उस दिन डाकोर से जयंती भाई के रिश्तेदार मदद के रूप में जलाऊ लकड़ियां लेकर पहुंचे थे। लेकिन इन मददगारों को भचाऊ इलाके के तथाकथित जमींदार की दादागिरी सहनी पड़ी। हमने देखा कि लकड़ी लेकर आ रहे इन लोगों को जमीदार के आदमियों ने कालर पकड़कर धमकाया और उन पर आरोप जड़ दिया कि वे वहां लकड़ियों का धंधा कर रहे हैं। इस जमीदार का नाम तो मालूम नहीं हो पाया, लेकिन लोग उसे बापा कहकर बुला रहे थे।
उस पूरे दरागा बाड़ी विस्तार में करीब 3 सौ घर हैं। वहां के हर घर में यदि औसतन 5 सदस्य मान लिए जाएं तो बाड़ी विस्तार में रहने वालों की औसत संख्या 15 सौ होगी। 1 फरवरी तक हमने पाया कि 15 सौ लोगों की तबाही की चिंता करने वाला कोई नहीं था। हालांकि इस बाड़ी विस्तार के किसान संपन्न हैं, लेकिन प्रकृति ने उन्हें भी उसी कतार में लाकर खड़ा कर दिया है जहां पर कच्छ का आम हैसियत वाला आदमी खड़ा है।
ऐसा नहीं है कि खुद्दारी संपन्न तबके तक ही सीमित है। गांव का आदमी हमें और भी ज्यादा खुद्दार नजर आया। हम कबराऊ गांव पहुंचे। 12 सौ की आबादी वाले इस गांव में 274 घर थे। भूकंप में यहां 71 लोगों की मौत हो गई और कम से कम 80 लोग जख्मी हुए। गांव तो पूरी तरह तबाह हुआ ही।यहां पर मुंबई के व्यापारियों ने कैंप लगाया हुआ था। उन व्यापारियों में से एक हीरे का व्यवसायी हमसे चर्चा के दौरान यह कहते हुए फफक पड़ा कि यहां के लोगों को मदद देने के लिए मिन्नतें करनी पड़ती है। वे खुद मदद लेने के लिए मिन्नते नहीं करते।
गांववालों की खुद्दारी वोंध में भी देखने को मिली जो भचाऊ से 6 किलोमीटर दूर है। वहां पर मुख्य सड़क के किनारे नर्मदा वली फर्टीलाइजर कंपनी ने राहत शिविर लगाया था। वोंध पूरी तरह तबाह हो चुका है। यहां पर 2 हजार मौतें हुई हैं। कंपनी के अधिकारियों ने बताया कि गांववालों ने उनसे अनाज तो लिया लेकिन साथ ही ग्रामीण महिलाओं ने कहा कि वे पूरे गांव की रसोई खुद तैयार करेंगे और कंपनीवालों को भी खिलाएंगी। ऐसा नहीं है कि मददगारों की मदद लेने खुद होकर एक भी सामने नहीं आया। बहुत थोड़े से लोग ऐसे भी थे। लेकिन इनकी भीड़ नहीं थी। 10-20 किलोमीटर के फासले पर इक्का-दुक्का परिवार राहत सामग्री से लदे वाहनों पर टकटकी लगाए नजर आ जाते थे। लेकिन कच्छ की बड़ी आबादी बिना शिकायत के त्रासदी झेल रही थी। वहां के लोग मदद ले भी रहे थे तो उतनी ही, जितने से काम चल जाए। अंजार के खंभरा गांव में मददगारों ने जब बिस्किट के पैकेट बांटे तो गांववालों ने यह कहते हुए लौटा दिया कि वे सुबह का नाश्ता नहीं करते। ये पैकेट किसी और के काम आ जाएंगे।

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तस्वीरों में कहां समाता वह विनाश (गुजरात में भूकंप की आंखों देखी-2)

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

तस्वीरों में कहां समाता वह विनाश (गुजरात में भूकंप की आंखों देखी-2)

रायपुर, 5 फरवरी 2001 (देशबन्धु)। आप शायद मुझसे यही जानना चाहें कि गुजरात में कितनी तबाही हुई। वहां मौतों का असली आंकड़ा क्या है। बेघर हो चुके लोगों का हालचाल क्या है। ऐसे ही कई सवाल आप मुझसे पूछ सकते हैं, बावजूद इसके कि आप रोज टेलीविजन की स्पेशल बुलेटिनें देख रहे होंगे। आप रोज अखबार पढ़ रहे होंगे और मेरी ही तरह गुजरात से लौटे लोगों से तबाही के खौफनाक किस्से सुन रहे होंगे।
आप यह जान लीजिए कि टेलीविजन पर आपने अब तक जितनी तबाही देखी है, अखबारों में जितनी खबरें पढ़ी हैं और लोगों से सुने किस्सों ने बरबादी की जो कल्पना दी है, गुजरात का विनाश उन सबसे कहीं ज्यादा है। मैं भी उस तबाही का वर्णन नहीं कर पाउंगा, जो मैंने वहां देखी है। यदि कुछ घरों या कुछ शहरों की बात होती तो शब्दों की मदद ले सकता था, लेकिन तबाह हो चुकी एक-एक जिंदगी के किस्से कहना मेरे बस की बात नहीं। कच्छ के एक-एक मुरछाए चेहरे पर कई-कई दर्दनाक कहानियां पुती हुईं हैं।
भचाऊ के गांधी ग्राम उद्योग कन्या छात्रावास की 15 साल की बच्ची सुनीता की बदकिस्मती की कहानी कही नहीं जा सकती। सुनीता बचपन से विकलांग थी, फिर भी जिंदगी से जूझ रही थी। अपने पैरों पर खड़ी होने की कोशिश में निरंतर पढ़ाई जारी रखे हुए थी। लेकिन नियती को शायद उसका जिंदा रहना ही पसंद नहीं था। 26 जनवरी को जब कन्या छात्रावास की 15 लड़कियां गणतंत्र दिवस मनाने बाहर गई हुई थीं, तब सुनीता छात्रावास में ही रुक गई। उसी समय धरती भयंकर तरीके से कांपी और सुनीता हमेशा-हमेशा के लिए खामोश हो गई। छात्रावास के मलबे में सुनीता की चकनाचूर हो चुकी ट्राइसिकल अब भी पड़ी हुई उसकी बदकिस्मती की कहानी कह रही है। दुर्ग से अंजार गए लोगों के चेहरों का खौफ बताया नहीं जा सकता, जो जगह-जगह भटक कर रिश्तेदारों की तलाश कर रहे थे।
दुर्ग के कचांदूर निवासी कांतिभाई चौहान, महेशभाई चौहान, भगवानभाई चौहान, जेवरा सिरसा के कैलाश चौहान, राजनांदगांव के सुरेशभाई टांक से अंजार के एक राहत शिविर में मुलाकात हुई। उन लोगों ने बताया कि उनके रिश्तेदार कच्छ में भुज, कुकमा, आदिपुर, खमरा, गढ़पदर, माधापुर में रहते हैं। कांतिभाई ने बताया कि उनके पिता और भाई सिनो गांव में रहते हैं। उनकी लड़की भी अंजोरा ताल्लुका के सिनोग्रा गांव में अपने चाचा के साथ रहती है। बहन और जीजाजी भी वहीं हैं। उन लोगों का क्या हुआ, क्या नहीं, इन सभी को कुछ पता नहीं था। ये लोग 30 जनवरी को अंजार पहुंचे थे। अंजार के खत्री चौक में सड़ी हुई लाशों की बदबू उठ रही थी। यहीं पर 15 साल के नीरज गुणवंत भाई जेठजा से मुलाकात हुई। नीरज ने बताया कि रायपुर के भाजपा नेता सूर्यकांत राठौर राठौर, फाफाडीह निवासी प्रकाश राठौर उनके मामा हैं। उसने बताया कि भूकंप में उसकी दादी की जान चली गई। इससे ज्यादा मेरी उससे बात नहीं हो पाई। लाशों की बदबू के कारण न तो मैं वहां रुकना चाह रहा था और न ही नीरज।
......ऊंची-ऊंची इमारतों वाले खूबसूरत शहर क्षणभर में मलबों के ढेर में बदल गए। प्रकृति की क्रूरता भी ऐसी थी कि जैसे उसने कोई बड़ा सा घन लेकर एक-एक इमारत पर प्रहार किया हो। और इमारतों के ध्वस्त होने के बाद उसकी घन से एक-एक दीवारें चकनाचूर कर दी हों। भुज हो, भचाऊ हो या अंजार हो। अब किसी भी परिभाषा में ये जगहें शहर नहीं कहीं जा सकतीं। अब इन शहरों के लिए कब्रिस्तान या श्मशान कहना ज्यादा ठीक होगा।
भुज और अंजार की तबाही देखने के बाद मैं 31 जनवरी को भचाऊ में था। यह वह इलाका है जिसमें भूकंप ने सबसे ज्यादा तबाही मचाई है। अहमदाबाद से इस इलाके की दूरी 450 किलोमीटर है। भुज, अंजार, भचाऊ, राप़ड़, गांधीधाम से लेकर कंडाला बदरगाह तक तबाही ही तबाही नजर आती है। कच्छ के 10 तालुके हैं, इनमें से भुज, अंजार, भचाऊ और रापड़ तालुके पूरी तरह तबाह हो गए हैं। तालुके का मतलब है तहसीलें और इन तालुकों की तबाही का मतलब इन तालुकों के गांवों की तबाही से भी है। यहां के एक-एक तालुक में औसतन 50-60 गांव होगे। इन सभी गांवो में 90 से 100 प्रतिशत तबाही की खबरें हैं। इन तालुकों के बहुत से गांवों में मैं भी गया। सभी जगह शत-प्रतिशत तबाही का आलम था। कहीं-कहीं इक्के-दुक्के भवन खड़े नजर आते थे। लेकिन लोगों का कहना था कि ये इमारतें भी दरक चुकी हैं और उन्हें भी गिराना होगा।
सभी बड़े शहरों में सबसे ज्यादा तबाही भचाऊ की है। पूरा शहर मलबे में तब्दिल हो चुका है। यहां के हालात खौफनाक हैं। भुज के जनसंपर्क अधिकारी एस.के.सोनी बताते हैं कि भचाऊ की कुल जनसंख्या का एक तिहाई   हिस्सा मौत का शिकार हो गया है। उनके अनुसार अकेले इस इलाके में मरने वालों की संख्या 18 हजार है। हालांकि गुजरात शासन अब तक पूरे गुजारत में मरने वालों की संख्या 17 हजार ही बता रहा है। श्री सोनी ने 30 जनवरी को मृतकों की यह संख्या बताई थी, जबकि तब भचाऊ के मलबों में सैकड़ों लाशें दबी पड़ी थीं। श्री सोनी ने अन्य तहसीलों में मरने वालों के आंकड़े भी बताए। उनके अनुसार भुज में 20 हजार, अंजार में 7 हजार, भचाऊ में 18 हजार, रापर में 5 सौ, रतनाल गांव में 3 सौ, अन्य 5 सौ लोग मौत के शिकार हुए। यदि इसी संख्या को जोड़ा जाए तो कुल मरने वालों का आंकड़ा 50 हजार तक पहुंच जाता है। जबकि इसमें गांधीधाम, अहमदाबाद के आंकड़े शामिल नहीं हैं। लेकिन लोग 50 हजार के आंकड़े को मानने के लिए तैयार नहीं है। जार्ज फर्नाडीज ने जिस दिन कहा कि गुजरात में एक लाख मौतें हुई हैं, इस दिन भी लोग श्री फर्नाडीज से असहमत थे। लोगों का कहना था कि मरने वालों की संख्या सवा लाख से डेढ़ लाख के बीच होगी। या फिर इससे भी ज्यादा।
इन लोगों के दावों का कोई आधार नहीं है। सिर्फ वे परिस्थितियां हैं, जो अब वहां सामने नजर आती हैं। करीब-करीब हर गांव और शहर में मलबों में दबी पड़ी लाशें। आधार तो गुजरात प्रशासन के पास भी नहीं है। पूरे कच्छ जिले में पूरा प्रशासन ठप पड़ा हुआ है। 31 जनवरी की सुबह अंजार में मैंने वहां के डिप्टी कलेक्टर श्री सरवैया को अपने अधीनस्थ कर्मचारी को एक ऐसा निर्देश देते सुना, जिससे स्पष्ट होता है कि शासन को न तो मौतों की जानकारी है और न ही अंदाजा। श्री सरवैया निर्देश दे रहे थे कि एक सर्कुलर जारी कर लोगों से कहा जाए कि वे प्रशासन के पास मौतों का आंकड़ा दर्ज कराएं। उन्हें यह भी कहते सुना गया कि लोग आंकड़े दर्ज नहीं करा रहे हैं। ध्यान दें, 31 जनवरी तक भूकंप के झटके को गुजरे 4 दिन हो चुके थे। इन 4 दिनों में अंजार की बची-खुची जनता पलायन कर चुकी थी और उनमें से भी बचे-खुचे लोग राहत शिविरों में शारीरिक और मानसिक रूप से घायल पड़े थे। यह एक शहर का ही किस्सा है, उन गांवों की बात ही छोड़िए जहां तबाही के हफ्तेभर बाद भी कोई सरकारी नुमाइंदा नहीं पहुंचा। न तो जिंदा लोगों की सांसे गिनने और न ही मुर्दा हो जुके जिस्मों की गिनती करने। जिसे जहां लाश मिल रही थी, वही वहीं उसका अंतिम संस्कार कर रहा था। न तो पोस्टमार्टम की जरूरत थी और न ही पुलिसिया औपचारिकताओं की। कौन मरा, कैसे मरा, कब मरा, भूकंप से मरा या किसी और वजह से, किसी को क्या खबर। प्रशासन को भी कैसे खबर होती।
जब मैं वहां था तब एक गुजराती समाचार पत्र ने एक समाचार प्रकाशित किया था। उसका शीर्षक कुछ इस प्रकार था-मौंते इतनी हुईं कि आप कल्पना ही कर सकते हैं।
गुजरात में मौतों को बताने का शायद यही सबसे अच्छा तरीका रह गया था। कच्छ के शहरों और श्मशानों की सरहद समाप्त हो गई थी। शहर ही कब्रिस्तान और श्मशान बने हुए थे। भचाऊ में मैं और महाराष्ट्र के गांवकरी अखबार के रिपोर्टर विजय हंसराज साथ-साथ मलबों को लांघ रहे थे। शहर के कई रास्ते अब इन्हीं मलबों से गुजरते थे। भचाऊ की बहुत सी जनता तो पलायन कर चुकी है, बहुत सी राहत शिविरों में है और कुछ लोग हैं जो अब भी मलबों के शहर में तंबू तानकर रह रहे हैं। ये वे लोग हैं जिनके कीमती सामान मलबों में दबे हुए हैं और जिन्हें चोरी होने की आशंका है। इन्हीं तंबुओं के बीच-बीच में राख के ढेर नजर आते हैं। तंबुओं में रहने वाले लोगों ने बताया कि ये राग के ढेर उन लोगों की चिताएं हैं, जो भूकंप में मारे गए। जिस घर से लाश मिली उसी घर की चौखट के सामने सामाजिक कार्यकर्ता और सेना के जवान लाश का अंतिम संस्कार कर देते हैं। लाशों का वारिस मिला तो ठीक, न मिला तो भी ठीक। शहर को सड़ी-गली लाशों से होने वाली महामारी से बचाने के लिए यह तरीका उचित भी है। जब शहर ही श्मशान बन गया तो किसी और श्मशान की क्या जरूरत। भचाऊ में एक ऐसी लाश देखने को मिली, जिसके अंतिम संस्कार के तरीके को देखकर ही शरीर में सुरसुरी फैल गई। यह लाश एक दुकान की शटर के नीचे दबी हुई थी। आधा शरीर अंदर था और आधा बाहर। कटर के अभाव में ऐसा कोई तरीका नहीं था कि लाश बाहर निकाली जा सके। स्वयंसेवकों ने लाश का उसी हालत में अंतिम संस्कार कर दिया। यानी आधी लाश का अंतिम संस्कार। जितनी की शटर के बाहर नजर आ रही थी। इस बदनसीब आदमी का नाम नहीं मालूम हो पाया। इतना ही पता चला कि वह एक व्यापारी था। मुझे बताया गया कि 26 जनवरी को जब भूकंप के झटकों से इमारत हिल रही थी तब उस व्यापारी ने जल्दी-जल्दी अपने बच्चों और पत्नी को बाहर निकाला। लेकिन जब खुद निकलने का प्रयास कर रहा था तब इमारत भरभराकर उस पर गिर पड़ी और वह वहीं दब गया।

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गुजरात में भूकंप की आंखों-देखी-1

सोमवार, 19 सितंबर 2011

गुजरात के भूकंप की आंखों-देखी-1

भूकंप से जिंदगी एक बार फिर दहल गई है। वर्ष 2001 में गुजरात में आए भूकंप की कुछ तस्वीरें मैंने पोस्ट की थी। उस दौरान देशबन्धु के संवाददाता के रूप में मैंने जो रिपोर्टिंग की थी, उसकी किस्त प्रस्तुत कर रहा हूं। ये रिपोर्ट आज भी सामयिक है, सिर्फ पात्र बदल गए हैं। प्रस्तुत है-






गुजरात के भूकंप की आंखों-देखी-1

रायपुर, 4 फरवरी 2001 (देशबन्धु)। जब छत्तीसगढ़ में अकाल ने दाने-दाने को मोहताज क दिया तो वे रोटी की तलाश में गुजरात चले गए। बदकिस्मती ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा। गुजरात में आए भूकंप ने एक बार फिर उनकी जिंदगी को झिंझोड़ कर रख दिया। छत्तीसगढ़ के बहुत से मजदूर पेट पर हाथ धरे उदास मन से गुजरात से लौट रहे हैं। लेकिन बहुत से मजदूर ऐसे भी हैं, जो गुजरात में बंधक बना लिए गए हैं। भूकंप के कारण मजदूरों में वहां मची खलबली के मद्देनजर वहां के मालिकों और ठेकेदारों ने उन पर हथियारबंद लोगों के पहरे बिठा रखे हैं। 
अहमदाबाद का रेलवे प्लेटफार्म इन दिनों भीड़ से खचाखच रहता है। गुजरात में बार-बार आ रहे भूकंप के झटकों से वहां दहशत का माहौल है। जिस पर तरह-तरह की वैज्ञानिक-अवैज्ञानिक भविष्यवाणियों ने इस माहौल को और गहरा कर दिया है। वहां हर आंख की पुतली में बरबाद हो चुके शहरों और क्षत-विक्षत , सड़ी-गली लाशों की परछाई साफ देखी जा सकती है। जिसे मौका मिल रहा है, वह भाग रहा है। भुज की सड़कों, अंजार की गलियों में, भचाऊ के चौगड्डे पर बदहवास भागते लोग देखे जा सकते हैं। अहमदाबाद रेलवे स्टेशन पर सहमी-सहमी भीड़ देखी जा सकती है। इन भागने वालों की भीड़ में वे लोग ज्यादा हैं जो दूसरे प्रदेशों से कमाने-खाने गुजरात आए थे। इससे पहले कि वे पेटभर रोटियां जुटा पाते, धरती से मौत की एक लहर उठी और उन्हें छूकर गुजर गई। जिन्हें रोटियों के लाले पड़े थे, उन्हें जिंदगी के लाले पड़ गए। ऐसे ही लोगों में छत्तीसगढ़ के वे मजदूर शामिल हैं, जो यहां अकाल के कारण कमाने-खाने गुजरात चले गए थे। अहमदाबाद और कच्छ इलाके में बिलासपुर और रायपुर के एक हजार से ज्यादा मजदूर ईंट भट्ठों में काम कर रहे थे। भूकंप ने वहां के ईंट भट्ठों को तबाह तो कर ही दिया, साथ ही उन झोपड़ियों को भी नहीं छोड़ा जिन्हें इन मजदूरों ने वहां अपने लिए बनाया था। 
गुजरात में यह पता नहीं चल पाया कि छत्तीसगढ़ से वहां आए मजदूरों को जनहानि हुई है या नहीं। वहां जितने भी मजदूर मिले सभी ने कहा कि उनके परिवार के सभी लोग सुरक्षित हैं। इन मजदूरों का कहना था कि 26 जनवरी को भूकंप का जो बड़ा झटका लगा था उस समय वे काम पर थे और उनका काम खुली जगहों पर चल रहा था। लेकिन उन्होंने उस पहले झटके के दौरान ऊंची-ऊंची इमारतों को ताश के पत्तों के महल की तरह भरभरा कर गिरते देखा था। उन्होंने अपनी झोपड़ियों को क्षणभर में मलबे में बदलते देखा था। ईंट भट्ठों की तबाही देखी थी। इसके बाद भी धरती भयानक तरीके से कांप रही थी। जैसे इतनी तबाही के बाद भी उसका जी नहीं भरा हो। 
सभी की तरह छत्तीसगढ़ के मजदूर भी दहशतजदा थे और हर हाल में छत्तीसगढ़ लौट जाना चाहते थे। अहमदाबाद रेलवे स्टेशन पर 2 फरवरी को छत्तीसगढ़ के ऐसे ही मजदूरों की भारी भीड़ नजर आई। स्टेशन से बाहर भूकंप पीड़ितों के लिए मुस्लिम समाज द्वारा लगाए गए लंगर में अपनी भूख मिटाने छत्तीसगढ़ के कई मजदूरों के कई झूंड नजर आए। इन मजदूरों ने इस संवाददाता को बताया कि उनमें से बहुत से अपना हिसाब पूरा कराए बगैर भाग आए हैं। कुछ ऐसे हैं जिनका हिसाब मालिकों ने किया तो जरूर लेकिन पूरे पैसे नहीं दिए। और बहुत से ऐसे हैं जिनके रिश्तेदारों को मालिकों ने बंधक बना लिया है। 
ग्राम पचपेढ़ी (बिलासपुर) के मनहरन सूर्यवंशी, ग्राम धनगवा (बिलासपुर) के चितराम पाटले, सोनाडीह (रायपुर) के नारायण प्रसाद कोसरिया, धुरवाकारी (रायपुर) के पंचराम राय ने इस संवाददाता को बताया कि वे लोग अपने परिवार के साथ 2 माह पहले गुजरात के ईंटभट्ठों में काम करने आए थे। अहमदाबाद से 22 किलोमीटर दूर सानननगर में वे काम कर रहे थे। उन्होंने कहा कि भूकंप में मरने से अच्छा है कि अपनी धरती पर भूखों मर जाएं, इसलिए लौट रहे हैं। उन्होंने बताया कि जिस स्थान पर वे काम कर रहे थे वहां पर रह-रहकर झटके आ रहे हैं। वहां की हवा भी अजीब-सी महसूस हो रही है। उन्होंने बताया कि दिमाग में भारीपन और उलझन महसूस कर रहे थे। इसलिए वे भाग आए। उन्होंने बताया कि अटालच नामक स्थल पर बी.के.ब्रिक्स नाम के भट्ठे में बहुत से मजदूर फंसे हुए हैं। इनमें संतन सूर्यवंशी (पचपेढ़ी, बिलासपुर), गपला सूर्यवंशी (पचपेढ़ी), उमेनसिंह सूर्यवंशी (पचपेढ़ी) शामिल हैं। इन मजदूरों के साथ-साथ उनका परिवार भी वहां फंसा हुआ है। उन्होंने बताया कि सानननगर के एक ईंट भट्ठे में 6 परिवार बंधक बनाए गए हैं। इन मजदूरों पर लाठी और फरसा से लैस मालिक के गुंडे नजर रखते हैं। कहते है कि रात के समय यदि किसी ने भागने की कोशिश की तो काट डालेंगे। 
उन्होंने बताया कि सानननगर की इस ईंटभट्ठी में ग्राम टेकारी (बिलासपुर) के धनीराम सतनामी, दीपक सतनामी, लक्ष्मीनारायण दास, राजकुमार सतनामी, जीवनलाल सतनामी, तोपसिंह सतनामी और उनके परिवार के कुल 25 लोग फंसे हुए हैं। इन मजदूरों ने बताया कि उन्हें ग्राम केंवतरा (बिलासपुर) के एक एजेंट फागूराम ने गुजरात भेजा था। साथ में एक और एजेंट था जिसका नाम गंगा था। इन मजदूरों ने वहां जाने से पहले पंचायत में पंजीयन भी नहीं कराया। उन्होंने बताया कि एजेंट ने कहा था कि एक हजार ईंट बनाने के 180 रुपए मिलेंगे, लेकिन वहां 147 रपए का ही रेट बताया गया। इसेक बाद भी पूरा हिसाब नहीं किया गया। फागूराम नाम के इसी एजेंट ने ग्राम केंवतरा के भूषण सूर्यवंशी और उनके परिवार के तीन सदस्यों, बैगा सूर्यवंशी और उनके परिवार के 4 सदस्यों परसदा मस्तूरी के गोरेलाल सूर्यवंशी और श्यामलाल सूर्यवंशी को गुजरात भेजा था। इन लोगों को रेट 150 रुपया बताया गया लेकिन 146 रुपए का रेट थमा कर हकाल दिया गया। 
ये मजदूर गुजरात के तेलभट्ठा में काम कर रहे थे। सभी मजदूर 2 तारीख को छत्तीसगढ आने के लिए अहमदाबाद-पुरी एक्सप्रेस में सवार हुए। भूकंप से सर्वाधिक प्रभावित भुज के निकट स्थित गांधीधाम में ग्राम महोतरा टुंडरा (रायपुर) के मनहरण सतनामी, गणेश सतनामी, रमेश सतनामी, रामनाथ सतनामी, कीर्तिक सतनामी, भोरथीडीह (रायपुर) के कार्तिक सतनामी, बरेली (गिरौदपुरी) के रामरतन सतनामी, भुरवा सतनामी काम कर रहे थे। भूकंप की तबाही में बच जाने के बाद ये सभी लोग छत्तीसगढ़ की ओर भाग रहे थे। 

रविवार, 18 सितंबर 2011

जब धरती डोलती है
















राहत कर्मियों के साथ मैं। मेरे कैमरे से एक पत्रकार ने यह
 तस्वीर उतारी थी। वे महाराष्ट्र के गांवकरी अखबार से वहां आए थे
देश के बडे हिस्से में कल 18 सितंबर को भूकंप के झटके महसूस किए गए। भूकप के मामले में सुरक्षित कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के बड़े हिस्से में भी धरती में कंपन की खबर है। जिस वक्त धरती हिली उस वक्त मैं अपने शहर में नहीं था और जिस शहर में था वहां मैंने ऐसा महसूस नहीं किया। शाम को लौटा तो पता चला कि रायपुर के लोगों ने भी झटके महसूस किए। इसके बाद मैं पूरी रात ठीक से सो नहीं सका। हालांकि आज के अखबारों ने रायपुर में भूकंप की पुष्टि नहीं की है।  मैं गुजरात में यह देख चुका था कि धरती एक बार कांपती है तो रह-रह कर कांपती है। 
गुजरात में भूकंप आया तब मैंने देशबन्धु के पत्रकार के रूप में उसकी रिपोर्टिंग की थी। यह रिपोर्ट कई किस्तों में छपी थी। मैंने ढेर सारी तस्वीरें भी खींची थी। इन तस्वीरों को आज भी देखता हूं तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन तस्वीरों के भीतर सड़ी हुई लाशों की दुर्गंध महसूस होती है। चीखती हुई औरतें, रोते हुए बच्चे, हताश और निराश मर्द नजर आते हैं। इस भयानक प्राकृतिक आपदा के बाद हर बार सरकारें भविष्य के बड़े नुकसान को रोकने के लिए तरह-तरह की योजनाएं बनाती हैं। सुरक्षित आवासों की कल्पनाएं की जाती हैं। लेकिन बाद में सब कुछ जस का तस हो जाता है। मेरे पास कुछ पुरानी तस्वीरें पड़ी हुई हैं, बहुत सी खो चुकी हैं। कुछ कतरने भी हैं। ये तस्वीरें और कतरनें देशबन्धु में छपी थीं और पूरी रिपोर्ट एक था भचाऊ शीर्षक से अक्षर-पर्व नाम की पत्रिका ने भी छापी थी। मैं इन्हें एक बार फिर शेयर कर रहा हूं। इस उम्मीद के साथ कि सरकारें अपनी भूली-बिसरी योजनाओं की फाइलों की धूल झाड़े। भूकंप के मामले में अनुसंधान तेज हो। हम इस बात को समझें की एक एक जिंदगी की  कीमत क्या होती है। किसी भयानक त्रासदी की प्रतीक्षा में हाथ धरे न बैठे रहें। 
पहले तस्वीरें पोस्ट कर रहा हूं- इन्हें देखें। आप चाहेंगे तो तब की रिपोर्ट भी प्रस्तुत करूंगा, श्रृंखला में। (देशबन्धु के प्रधानसंपादक श्री ललित सुरजन, तत्कालीन संपादक श्री सुनीलकुमार, तत्कालीन स्थानीय संपादक श्री रुचिर गर्ग, तत्कालीन सिटी चीफ श्री संदीपसिंह ठाकुर के आभार सहित, जिन्होंने मुझे गुजरात भेजने का निर्णय लिया था। और आभार रायपुर के गुजराती समाज का जिनके राहत दल के साथ मैं गुजरात रवाना हुआ था)

शनिवार, 17 सितंबर 2011

मैं और वेधशाला

मैं दैनिक भास्कर के उज्जैन ब्यूरो में सिटी रिपोर्टर पदस्थ हुआ। नया-नया था। उस प्राचीन नगरी के चप्पे-चप्पे को लेकर गजब का कौतुहल था। जो बीट मिली उनमें महाकाल मंदिर और प्रचीन वेधशाला भी शामिल थी। वेधशाला काफी जर्जर हालत में थी। मैं उसकी हालत देख दुखी था। मैंने उस पर एक रिपोर्ट फाइल की। तब मेरे कुछ साथियों ने कहा-हर नया रिपोर्टर वेधशाला पर ऐसी ही रिपोर्ट लिखता है। असर कुछ नहीं होता।...बहरहाल रिपोर्ट छपी और कुछ ही दिनों बाद पता चला की वेधशाला के जिर्णोद्धार के लिए प्रयास शुरू हो गए हैं। मैं नहीं कह सकता कि यह मेरी ही रिपोर्ट का असर था। लेकिन उस वेधशाला को संवरते देखना बड़ा ही सुखद अनुभव था। जीर्णोद्धार भी इस तरह किया गया कि उसके यंत्रों की गुणवत्ता अप्रभावित रही। इस तस्वीर की पृष्ठभूमि में संवरती वेधशाला नजर आ रही है। यह एक और ऐतिहासिक मौका था। मैंने सोचा इस वेधशाला के साथ एक मेरी भी तस्वीर क्यों न हो जाए।

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

हेलो, सुन रहा है कोई

यह एक गुफा है
और अंधेरा है बहुत
दीवारें किधर हैं पता नहीं
पता नहीं किधर निकास है

फोटो-केवलकृष्ण
पता पूछता हूं
तो दीवारों से टकराकर
लौटती है मेरी आवाज
पूछती है मुझसे ही-
किधर है निकास

अकेला नहीं हूं मैं
और भी हैं यहां
सब के सब अंधकार के अभ्यस्त
पर बोलते नहीं मेरी जुबां
उनकी जुबां समझता नहीं मैं

मैं अंधेरे से नहीं डरता
अंधेरे में मरने से डरता हूं शायद
कि मैं कब मर गया
किसी को पता ही नहीं चला

मौत के बाद
किसी के स्पर्श के क्या मायने
फिर भी चाहता हूं
मरूं तो कोई सहलाए मुझे
जगाए, कहे-उठो भी
अभी तो जीना है तुम्हें।
किसी के मातम के क्या मायने
फिर भी चाहता हूं
मातम हो मेरी मौत पर
आंसुओं से तर हो जाए मेरा चेहरा
कफन भींग जाए

मौत के बाद भी चाहता हूं प्रेम
यह अलग बात है कि
इसी प्रेम की तलाश में
बदहवास भटकता रहा जिंदगीभर
और भटकता-भटकता पहुंच गया यहां तक
अंधेरे में।

-केवलकृष्ण

कला को जमीन की तलाश

रायपुर। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से  श्री चक्रधर कथक कल्याण केन्द्र संगीत महाविद्यालय राजनांदगांव के प्रतिनिधि मण्डल ने मुलाकात की।इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय से संबध्द यह संगीत महाविद्यालय 25 वर्षों से संचालित है। प्रतिनिधि मण्डल ने इस महाविद्यालय के लिए भूमि उपलब्ध कराने और उच्च शिक्षा विभाग से नियमित अनुदान दिलाने का आग्रह किया।प्रतिनिधि मण्डल में श्री चक्रधर कथक कल्याण केन्द्र संगीत महाविद्यालय राजनांदगांव के संचालक डॉ. कृष्ण कुमार सिन्हा, भारती बंधु, श्रीमती प्रज्ञा श्रीवास्तव, तुषार सिन्हा और राजेश साहू शामिल थे।

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

पड़ोस का कलाकार







श्री एम.आर.कुरैशी
सड़क से गुजरते हुए अप्रयास ध्यान उस घर की ओर चला जाता। घर की बैठक बिलकुल सामने है। उस बैठक की एक दीवार पर बड़ी सी पेंटिंग टंगी हुई है। यह पेंटिंग बार-बार मेरा ध्यान खीचती। पड़ोसी नये थे, इसलिए इसके बारे में अपनी जिज्ञासा जाहिर नहीं कर सकता था। जनपहचान गढाई तो मैंने पूछ ही लिया। पता चला कि यह कृति पड़ोसी ने स्वयं तैयार की है। श्री एम.आर.कुरैशी ने खैरागढ़ कला विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की है। वे ज्ञान गंगा स्कूल रायपुर में ड्राइंग टीचर हैं। उनकी इजाजत से मैंने उनकी पेटिंग को अपने कैमरे में कैद किया था। श्री कुरैशी एक संकोची कलाकार है और अपनी कला के बारे में ज्यादा कहते-बोलते नहीं। 

बुधवार, 14 सितंबर 2011

देखिए सदगति


ये है सत्यजीत रे की फिल्म सदगति का अंतिम भाग। इस फिल्म की शूटिंग छत्तीसगढ़ में की गई थी। इसमें भैयालाल हेड़ऊ समेत कई स्थानीय कलाकारों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ओमपुरी, स्मिता पाटिल और मोहन अगासे ने लाजवाब अभिनय किया था। फिल्म मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित थी।

महान विभूतियों पर चित्रकथाएं, संपर्क करें छग पाठ्यपुस्तक निगम से


 रायपुर। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ की महान विभूतियों की जीवन गाथा और उनके प्रेरक प्रसंगों पर आधारित चित्रकथा श्रृंखला के अन्तर्गत 20 विभूतियों की चित्रकथा पुस्तिकाओं सहित छत्तीसगढ़ी शब्दकोष का विमोचन किया। इन पुस्तिकाओं का प्रकाशन छत्तीसगढ़ पाठयपुस्तक निगम द्वारा किया गया है। इनमें बाबा गुरू घासीदास, शहीद वीर नारायण सिंह, बिलासा बाई केंवटिन, गुण्डाधूर, वीर सुरेन्द्र साय, पं. सुन्दरलाल शर्मा, डॉ. खूबचंद बघेल, संत गहिरा गुरू, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, यतियतन लाल, पं. मुकुटधर पाण्डेय, शहीद कौशल यादव, पं. माधवराव सप्रे, गजानंद माधव मुक्तिबोध, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्रा की जीवन गाथा पर आधारित पुस्तिकाएं शामिल हैं। 

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

बस्तर में कभी राजनीतिक चेतना रही ही नहीं - लाला जगदलपुरी

पिछली पोस्ट गूंज अभी बांकी में मैंने बचेली से निकली पहली अव्यवसायिक और अनियतकालीन पत्रिका प्रतिध्वानि का उल्लेख किया था। यह कम उम्र के नौजवानों का संयुक्त प्रयास था। इसके जितने भी अंक प्रकाशित हुए उनमें काफी महत्वपूर्ण सामग्री थी। कुछ तो ऐतिहासिक महत्व की भी थीं। लाला जगदलपुरी से तब लिया गया साक्षात्कार भी इनमें से एक है। वर्ष 1988-89 के आसपास प्रतिध्वनि की टीम द्वारा लिए गए इस साक्षात्कार में लालाजी ने जो कुछ कहा वो बस्तर के रंगमंच और साहित्य के इतिहास का एक हिस्सा भी था। इस साक्षात्कार के लिए जगदलपुर के साहित्यकार हिमांशु शेखर झा ने प्रतिध्वनि की मदद की थी। पुराने दस्तावेजों में प्रतिध्वनि के कुछ पन्ने मिले, उन्हीं में यह भी था। प्रस्तुत हैः
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लाला जगदलपुरी से साक्षात्कार

सर्जन के विभिन्न आयामों का आवलोकन करना हो तो यह कार्य प्रख्यात साहित्य मनीषी, चिंतक श्री लाला जगदलपुरी की रचनाधर्मिता के माध्यम से सहज संभव हो सकता है. लालाजी वरिष्ठ कवि, समर्थ लेखक, प्रखर समालोचक, भाषा विज्ञानी, इतिहास एवं पुराविद, रंगकर्मी सभी रूपों में जाने जाते हैं। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व में पूरा साम्य है। द्वैत नहीं है। संभतः लालाजी की रचनाओं की मुख्य विशेषता पारदर्शिता है और इस पारदर्शिता को साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि कहा जा सकता है। 
लाला जगदलपुरी
(फोटो-श्री राजकुमार सेनी के ब्लाग बिगुल से।
साक्षात्कारः-

प्रतिध्वनिः- आप मूलतः कवि हैं-हिंदी साहित्य में छायावादोत्तर काल में काव्य को लेकर विभिन्न आंदोलनों की चर्चा की जाती है-मसलन प्रयोगधर्मी काव्य, नवगीत, हिंदी गजल और प्रगतिशील आदि। बीच के दौर में दलित कविता नाम से रचनाएं लिखी गईं थीं। कथ्य और शिल्प की बुनावट को लेकर आप काव्य धाराओं के वर्गीकरण पर टिप्पणी दें।

लाला जगदलपुरीः- कोई भी रचना तब प्रभावित करती है, जब कला और शिल्प में एक संतुलन होता है। जब कला पक्ष को अधिक बल दिया जाता है तो केवल एक पक्षीय रचना सामने आती है। अर्थात विचार के अभाव में रचना-शिल्प ही सामने आता है। और केवल विचार पक्ष ही सबकुछ नहीं होता। जब विचार को अभिव्यक्ति दी जाए और रचना में कला का पुट न हो तो वह भी शुष्क रचना हो जाती है। इस प्रकार कला पक्ष एवं भाव पक्ष दोनों में संतुलित सामंजस्य हो ही। तभी एक सशक्त रचना मूर्त होती है।
काव्यांदोलनों से कविता की अस्मिता नहीं रह जाती। किसी भी चौखट से कविता को बांध देने पर कविता का अस्तित्व पराधीन हो जाता है। प्रतिबद्धता बेमानी होती है। कविता केवल मानव संवेदना से प्रतिबद्ध होती है। प्रलेस एक राजनैतिक संगठन है जो एक तरह की रचनाओं का सृजन पाठकों को दे रहा है। गीत विधा को तो प्रलेस ने एकदम नकार दिया है, जबकि प्रगतिशील गीतकारों एवं शायरों के पास भी जनचेतना से जुड़े कथ्य हैं। गीतों की अपनी शैली भी है। नवगीत जो अभी चल रहा है, उसमें कुछ गीत बहुत अच्छे आए हैं। युगबोध उनके कथ्य में आता है। पिछले समय में भूखी पीढ़ी, नंगी पीढ़ी, कविता, अकविता, अगीत, प्रगीत आदि आंदलोन भी चलते रहे थे। आंदोलनों से साहित्य का विकास नहीं, ह्रास होता है। प्रत्येक आंदोलन से एक मसीहा सामने आता है और समकालीन लेखक उसी से बंधे होते हैं।

प्रतिध्वनिः- आपने लोक साहित्य में विशिष्ट कार्य किया है। आधुनिक साहित्य में लोक साहित्य को प्रतिष्ठा नहीं मिल पाई है। जिसकी अपेक्षा स्वभाविक भी है।

लाला जगदलपुरीः- लोक साहित्य तो बुनियादी साहित्य है। लोक साहित्य पर शुरू से ही काम होता आ रहा है। अखिल भारतीय स्तर पर लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ है। बच्चन ने बहुत पूर्व ही लोक गीतों से भाव लेकर अपने स्वतंत्र गीतों में अभिव्यक्ति दी थी।
आज का माहौल लोक-कथाओं का है। लोक कथाओं पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले हैं। यही नहीं उनका प्रसारण दूरदर्शन पर भी होता रहा है। लोक गीत काफी पीछे चल रहे हैं। लोक गीतों को म्यूजिक डायरेक्टर्स फिल्मों में ले रहे हैं।
लोक साहित्य का भविष्य वास्तव में काफी उज्जवल है।

प्रतिध्वनिः- आपने बस्तर पर ऐतिहासिक शोधपरक निबंध लिखे हैं। हम जानना चाहते हैं कि इतिहास लेखन जैसे विशिष्ट क्षेत्र में कौन-कौन सी परेशानियां सामने आती हैं। बस्तर के ऐतिहासिक विवेचन की दृष्टि से आप किन इतिहासविदों से सहमत हैं।

लाला जगदलपुरीः-बस्तर इतिहास पर अब तक नहीं के बराबर कार्य हुआ है। बस्तर इतिहास के जो तथाकथित विद्वान हैं, उन्होंने जिम्मेदारी से कलम नहीं चलाई है। केवल एक व्यक्ति श्री कृष्णकुमार झा ने महत्वपूर्ण कार्य किया है, किंतु उनका शोध कार्य सामने नहीं आ सकता है। प्रो.बेहार की पुस्तक बस्तर आरण्यक विद्यार्थियों के लिए जानकारी का स्रोत हो सकती है, किंतु वह भी संदर्भों का संकलन मात्र है।
वस्तुतः बस्तर इतिहास पर लिखने वाले विद्वानों ने संबंधित राजाओं की वंशावलियों व तिथियों को लेकर भ्रामक स्थिति अपनाई थी। बस्तर इतिहास का मेरूदंड बारसूर है। किंतु आज तक बारसूर पर कोई कार्य नहीं हुआ। श्री शिवप्रकाश तिवारी, जो बारसूर को खजुराहो की संज्ञा देते है, बारसूर की स्थापना कब और किसने की के प्रश्न पर मौन रह जाते हैं। पूर्व में अन्नमदेव आदि राजाओं को काकतीय कहते थे, बाद में रक्षपालदेव के समय से बस्तर राजधानी थी,  जिनके समय में 300 ब्राह्मण आकर बसे थे। एक ताम्रपत्र के आधार पर चालुक्यवंशी घोषित किया गया।
बस्तर पर इतिहास लेखन का आरंभ पाषाण काल से किया जाना चाहिए। मैं तो एक साहित्यकार हूं। जमीन से जुड़े होने के कारण ही मैंने ऐतिहासिक शोधपरक निबंध लिखे हैं।

प्रतिध्वनिः- बस्तर में नाटकों की विशेष परंपरा विकसित नहीं हो पाई, ऐसा कुछ लोगों का मानना है। जबकि कतिपय का मानना है कि इसकी जीवंत परंपरा है। ..इस पर आपके विचार।

लाला जगदलपुरीः- बस्तर में नाटकों की परंपरा आरंभ से ही रही है। 1914 में राजा रूद्रप्रतापदेव रामलीला पार्टी का गठन हुआ था। बनारस से प्रशिक्षण देने के लिए पंडित बुलाए गए थे। उसेक बाद तो अनेक पार्टियां स्थापित हुईं थीं। जैसे-सत्यविजय थियेट्रिकल सोसायटी नौटंकी पार्टी, आर्य बांधव थियोट्रिकल सोसायटी, प्रेम मंडली आदि। सभी संस्थाएं स्वयं के खर्च पर प्रदर्शन करती थीं।
कला को समर्पित उस युग में जबकि मंचन के लिए प्रकाश व्यवस्था आदि का अभाव था, सफलता के साथ प्रदर्शन चलते रहे थे। आज, जबकि सारे साधन उपलब्ध हैं, गतिरोध उत्पन्न हो गया है जो कि चिंता का विषय है। एमए रहीम की नाटक संस्था अवश्य कुछ अच्छा कार्य कर रही है।

प्रतिध्वनिः-लेखक और पाठक के रिश्ते और उनकी समझ पर आपकी टिप्पणी...

लाला जगदलपुरीः- लेखक तो अपने चिंतन को अपने ढंग से अभिव्यक्ति देता चलता है। वह यह नहीं जानता कि उसकी रचना प्रस्तुतियों को कौन किस ढंग से लेता है। जब प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हैं, तो लगता है लेखक सार्थक जा रहा है।
आज समकालीन कविता की जो प्रस्तुति है, वह प्रायः इतनी अटपटी हो चली है कि कविता का केंद्रीय भाव पल्ले नहीं पड़ता। कुछ लोग कहते हैं कि कोई आवश्यक नहीं कि हमारी रचना हर पाठक को समझ में आ जाए। हम कविता महज मानसिक संतुष्टि के लिए लिखते हैं। वस्तुतः साहित्य तो वह है जो पाठक को ऊर्जा देता है और यही कर पाने में आज की कविता अक्षम है।

प्रतिध्वनि-अच्छी कृतियों के बावजूद रचनाकारों को प्रकाशन की समस्या से दो-चार होना पड़ता है। प्रकाशन के लिए गुटबंदियों का सहारा क्यों लेना पड़ता है। क्या अच्छे साहित्य का प्रकाशन घाटे का सौदा है।

लाला जगदलपुरीः- अच्छी कृतियों के प्रकाशन के लिए रचनाकारों को भटकना नहीं पड़ता। उनका प्रकाशन तो होकर ही रहता है....भले ही उनके जीवनकाल में न हो। मुक्तिबोध की मृत्यु के बाद उनका संकलन प्रकाशित हुआ था। समय लगता है, लेकिन अच्छी कृतियां सामने आ ही जाती हैं। गुटबंदियों में वह ताकत नहीं कि अच्छी कृतियों को प्रकाशित होने से रोक सकें।
अच्छे साहित्य का प्रकाशन घाटे का सौदा नहीं है। बिक्री तो होती है। अच्छे प्रकाशन के तो कई-कई संस्करण निकलते हैं।

प्रतिध्वनिः- लघु और अव्यावसायिक पत्रिकाओं के योगदान को आप किस दृष्टि से देखते हैं।


लाला जगदलपुरीः-रचनात्मक योगदान तो है उनका किंतु अव्यावसायिक होने के कारण उन्हें आर्थिक संकट से गुजरना पड़ता है। ऐसे प्रकाशन रचनाधर्मी होते हैं, जो लेखक हैं वे ही उनके पाठक होते हैं। अतः रचनाकारों का उन्हें सहयोग मिलता है और मिलना भी चाहिए। जितने भी अनियतकालीन प्रकाशन हैं, वे इसी तरह चल रहे हैं।

प्रतिध्वनिः-अखबारी और जरूरत के हिसाब से या कहें मांग के अनुसार माल खपाने की प्रवृत्ति को आप किस दृष्टि से देखते हैं।  कया यह स्वस्थ साहित्यिक विकास के लिए बाधक तत्व है।

लाला जगदलपुरीः- मांग के अनुसार रचनाएं तैयार नहीं की जातीं। हालांकि वर्कशाप तो चलाते हैं लोग। सरकारी लेखक अवश्य मांग पर रचनाएं तैयार करते हैं। एक स्वस्थ साहित्य विकास की परंपरा इससे हट कर चलती है।

प्रतिध्वनिः-आप विभिन्न समाचार पत्रों से संबद्ध रहे हैं। आज की पत्रकारिता कितनी सजग या कितनी व्यावसायिक हो गई है..इस पर आपके विचार। विशेषकर इन दिनों विभिन्न औद्योगिक घरानों  का राष्ट्रीय और आंचलिक पत्रकारिता पर असर नजर आ रहा है। फिर इसे उद्योग का दर्जा दिए जाने की बात जोरों पर है। इससे पत्रकारिता को लाभ होगा अथवा हानि।

लाला जगदलपुरी- पहले की पत्रकारिता पूर्णतः दुधारी थी और आज की पत्रकारिता पूर्णतः दुधारू है।
पत्रिका प्रतिध्वनि का एक पन्ना
पत्रकारिता को उद्योग का दर्जा दिए जाने पर आपत्ति तो नहीं होनी चाहिए। यदि उसमें ईमानदारी सन्निहित हो, क्योंकि जहां उद्योग आता है शोषण की गुजाइश वहां हो ही जाती है।


प्रतिध्वनिः-क्या किसी रचनाकार को विधा विशेष में ही लिखने में पारंगत होना चाहिए।

लाला जगदलपुरीः-जिसका स्वाभाविक झुकाव जिस विधा की ओर हो, उसी विधा में लिखना उसके लिए श्रेयस्कर है। अन्यथा उसकी लेखनी में बिखराव आ सकता है। अधिकांश रचनाकारों का झुकाव कविता की ओर होता चला जाता है। यद्यपि कई लोगों ने कई विधाओं पर अपनी कलम एक साथ चलाई है।

प्रतिध्वनिः-बस्तर की राजनीतिक चेतना पर आपके विशेष विचार। विशेषकर प्रवीरचंद की मृत्यु के बाद...

लाला जगदलपुरी-बस्तर में तो कभी राजनीतिक चेतना थी ही नहीं। और आज भी नहीं है। आज का बस्तर नेतृत्वहीन हो गया है। पहले नेतृत्व राजघरानों का था भले ही विवादास्पद रहा हो। आज नेता तो हैं, किंतु नेतृत्वहीन है बस्तर...।


प्रतिध्वनिः-बस्तर की युवा रचनाकार पीढ़ी के प्रति आपकी अपेक्षाएं क्या हैं।

लाला जगदलपुरी-युवा रचनाकार सार्थक लिखें, धीरज के साथ लिखें।

(प्रतिध्वनि की टीम में-राजीवरंजन प्रसाद, केवलकृष्ण, रूपेश सिंगारे, प्रीति शर्मा, संगीता मिश्रा)

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सोमवार, 12 सितंबर 2011

गूंज अभी बांकी है

किसी की उम्र 16 साल थी तो किसी की बीस। नौजवानों की टोली थी वह। कोई सात-आठ रहे होंगे। सन 1988-89 के आसपास की बात है। दौर लघु पत्रिकाओं था। महानगरों और कस्बों से कई स्तरीय लघु पत्रिकाएं निकला करती थीं। इस टोली में ज्यादतर ऐसे थे  जिन्होंने स्कूली मंचों पर तालियां बटोरी थी और अब स्कूल के बाहर भी कुछ अच्छा करने की इच्छा रखते थे। इस टोली ने भी एक लघु-पत्रिका निकालने का ख्वाब देखा। संसाधन तो थे नहीं और उम्र भी ऐसी नहीं थी कि कोई सहसा विश्वास कर ले। तब भी टोली ने इन सब की परवाह किए बिना अपना काम शुरू कर दिया। यह काम एक ऐसे कस्बे में शुरू हुआ, जहां इस तरह की गतिविधियों का कोई समृद्ध इतिहास नहीं था। छत्तीसगढ़ के बिलकुल आखिरी छोर पर, लोहे की खदानों वाले शहर बचेली में। तय हुआ कि पत्रिका का नाम प्रतिध्वनि होगा और इसे साइकलोस्टाइल में प्रिंट किया जाएगा। खदानों के एडमिनिस्ट्रेटिव आफिस में काम करने वाले कुछ लोगों ने बच्चों  पर भरोसा किया और प्रिंटिग में मदद का आश्वासन दिया। अब टीम ने रचनाएं जुटानी शुरू की। साहस इतना कि दिग्गज साहित्यकारों के पास पहुंच गए हाथ पसारे। दिग्गजों ने भी झोलियां भरने में कंजूसी नहीं की। जो मांगा वह मिला, रचनाएं मांगी तो रचनाएं मिलीं। साक्षात्कार मांगा तो साक्षात्कार मिला। लाला जगदलपुरी, रउफ परवेज, विजय सिंह, योगेंद्र मोतीवाला, मदन आचार्य, डा.जी.आर.साक्षी, अभिलाष दवे समेत अनेक लोगों ने टीम की पीठ थपथपाई। पत्रिका के पन्ने तैयार हो गए। मुखपृष्ठ इसी टीम के एक चित्रकार ने रेखांकन से तैयार किया। धरती पर खड़ा एक किसान आसमान छू रहा था और उसकी मुट्ठी में चांद-सितारे थे। मुखपृष्ठ छपकर आया तो टीम के किसी एक सदस्य के घर पर बैठकर बाइंडिंग शुरू हुई। सुई और धागे से पन्ने सिले गए। आंटे की लई से मुखपृष्ठ चिपका दिया गया। पहला अंक अब हाथ में था। टीम के ही एक सदस्य को संपादक बना दिया, कुछ और पद तैयार किए गए जिनमें दूसरे सदस्य थे। पहला अंक खूब सराहा गया। इन बच्चों की टोली में थे राजीव रंजन, रूपेश सिंगारे, प्रीति शर्मा, संगीता मिश्रा, अजय डे, आदि। एक सदस्य मैं भी था। राजीव को संपादक बनाया गया। ये वही राजीव हैं जो इस वक्त साहित्य शिल्पी नाम के वेबपेज का संपादन कर रहे हैं। इस पत्रिका के दो अंक निकले, दूसरे अंक में जब पैसों का टोटा हुआ तब मुखपृष्ठ फोटोस्टेट से तैयार किया गया। पत्रिका की ओर से अनेक गतिविधियां भी की गईं। नाटकों का मंचन, चित्रकला प्रदर्शनी, गोष्ठी आदि। बाद में टीम बिखर गई। आगे की पढ़ाई के लिए किसी ने कहीं का रुख किया तो किसी ने कहीं का। प्रतिध्वनि का प्रकाशन बंद हो गया। लेकिन वह अब भी मेरे भीतर ध्वनित हो रही है। 

शनिवार, 10 सितंबर 2011

मुछ्छड़ पहाड़ और हम

एक लकीर खींची
और कहा-पापा, देखो पहाड़
देखा मैंने
तुम्हारी ड्राइंग बुक में
अपनी कमर पर दोनों हाथ दिए
मुस्कुरा रहा था
हिमालय से ऊंचा
एक मुछ्छड़ पहाड़

तुम्हारी बारिश में
इतना भींगा-इतना भींगा
कि गीला हूं अभी तक
भीतर तक
तुम्हारी नदी के किनारे
बैठा हूं
धार में दोनों पांव दिए
महसूस कर रहा हूं तलवों में
तुम्हारी मछलियों की गुदगुदी

तुमने कहा-पापा ये आप
ये मम्मी और ये मैं
देखा मैने
हमारी ऊंगलियां थामे
मुस्कुरा रही हो तुम
और चांद सितारे मुस्कुरा रहे हैं साथ तुम्हारे

अब एक दुनिया रचो बेटी
अपने ही रंगों से
जो खूबसूरत हो उतनी
जितना खूबसूरत है तुम्हारा अंतस


बुधवार, 7 सितंबर 2011

करेले जैसी हो तुम प्रिये और करेला मुझे बहुत पसंद है

प्रिये तुम्हारा प्रेम करेले की तरह कड़ुवा हो गया है क्या। हाय, तिवरे की डाली की तरह नाजुक हो। तेल की बघार जैसा तुम्हारा तीखापन हर तरफ छाया हुआ है। ये तो गजब है। इस बघार में मिर्च की झाल है। धनिये की हरी पत्ती हो तुम, सुगंधित और स्वादिष्ट........ऐसे अपारंपरिक बिंबो का चमत्कारी प्रयोग लोकगीतों और लोक साहित्य में बड़े पैमाने पर होता रहा है। एक अज्ञात लोक कवि की कल्पना देखिए उसे अपनी प्रेयसी भाजी और सुकसी मछली की तरह भी नजर आती है। यह रचना पढ़ते पढ़ते वह फिल्मी गीत याद आ गया-इक लड़की को देखा तो ऐसा लगा.....। मैं दोनों गीतों की तुलना में खो गया और किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा।
इस गीत को मेरे मित्र अजीत शर्मा ने फेस बुक पर शेयर किया था, वहीं से कापी कर पेस्ट कर रहा हूं। अजीत भाई के आभार सहित


करेला असन करू होगे का ओ तोर मया
ये सनानना करेला असन करू होगे य मोर मया
करेला असन करू होगे का ओ, करेला असन करू होगे का य मोर मया
ये सनानना करेला असन करू होगे य मोर मया
हाय रे तिवरा के ड़ार , टुरी तेल के बघार
ये गजब लागे वो गजब लागे
ये गजब लागे सँगी , जेमा मिरचा मारे झार
गजब लागे,
ये सनानना करेला असन करू होगे य तोर मया
हाय रे धनिया के पान, मिरी बँगाला मितान
गजब लागे वो , गजब लाबे
ये गजब लागे वो ये गजब लागे
ये गजब लागे सँगी , जेमा मिरी के बरदान
गजब लागे,
ये सनानना करेला असन करू होगे य तोर मया


हाय रे जिल्लो के भाजी, खाय बर डौकी डौका राजी
ये गजब लागे वो गजब लागे
ये गजब लागे सँगी , जेमा सुकसी मारे बाजी
गजब लागे,
ये सनानना करेला असन करू होगे य तोर मया

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

नाच नहीं नाचा

नाचा क्या है छत्तीसगढ़ के लोग अच्छी तरह जानते हैं। इसकी खूबियों से अच्छी तरह वाकिफ भी हैं। गांवों में अब भी जब नाचा होता है तो भीड़ उमड़ पड़ती है। नाचा पूरी रात चलता है और सूरज उगने के बाद भी थमता नहीं। रात में जुटी भीड़ सुबह तक डटी रहती है। और तो और जब नींद आती है तो बहुत से लोग वहीं पसर भी जाते हैं, नाचा खत्म होने के बाद ही घर जाते हैं। लेकिन जो लोग छत्तीसगढ़ के बाहर हैं उन्हें यह बता दूं कि आम तौर पर नाच को जिस अर्थ में लिया जाता है, नाचा उससे बिलकुल भिन्न है। इसमें मनोरंजन के साथ साथ दर्शन भी होता है। बातों की बातों में कलाकार वर्तमान परिवेश पर करारा व्यंग्य भी कर जाते हैं। यह छत्तीसगढ का पुराना रंगकर्म है जिसका लोहा आधुनिक रंगकर्म भी मानता है। हबीब तनवीर जैसे दिग्गज रंगकर्मियों ने इसी से ताकत बटोरी। उनके ज्यादातर कलाकार नाचा कलाकार ही थी।....लेकिन विकास की बयार अब शहरों से गांवों की ओर बह रही है। विकास की यह आंधी कई परंपरागत कलाओं को ले उड़ी। नाचा भी थपेड़े खा रहा है। मेरा भी बचपन कस्बाई इलाके में बीता है। नाचा मैंने भी देखा है और जब उन दिनों को याद करता हूं तो वह जोक्कर या आ जाता है जो रात भर हंसाता रहा। सिर पर कलश लिए नारी वेश में वे कलाकार याद आ जाते हैं, जो पुकारते थे- ए होssssssss

सोमवार, 5 सितंबर 2011

अन्ना बड़े या इरोम

अपूर्व गर्गजी के विचारों को सुनते-पढ़ते मैं शिक्षित होने का प्रयास करता रहा हूं। फेसबुक पर जब उन्होंने एक लिंक शेयर किया तो उनके विचारों को कुरेदने की मैंने कोशिश की। एक इंटरव्यू ही हो गया। मैंने उनसे अनुमति मांगी थी कि क्या इस इंटरव्यू को ब्लाग पर प्रकाशित कर सकता हूं। जवाब नहीं आया है, फिर भी मैं अधिकारपूर्वक यहां प्रकाशित कर रहा हूं।




Irom Sharmila Chanu has been fasting for 11 years. Unlike Anna Hazare, who was cajoled by millions to end his fast, she enjoys no public support or media coverage. Her cause is almost unknown outside her state...

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  • 2 people like this.

    • Kewal Krishna मुझे लगता है कि यह तुलना नहीं की जानी चाहिए। यह जरूर है कि अन्ना को सफलता जल्दी मिल गई।
      44 minutes ago · 

    • Kewal Krishna अभी तुलना जल्दबाजी होगी
      44 minutes ago · 

    • Apurva Garg Irom ka lambe struggle atulniya hai.
      42 minutes ago · 

    • Kewal Krishna बेशक वे भी महान हैं
      41 minutes ago · 

    • Apurva Garg Irom jis jagah se ,jin sansadhno ke saath , jin logo ke saath , jitne lambe samay se fight kar rahi hain uska sthan 6 news channel dwara mahol banane se bilkul alag hai.
      39 minutes ago · 

    • Kewal Krishna इरोम के मुद्दे को ठीक से नहीं उठाया जा सका या अन्ना की तरह जनमानस का व्यापक समर्थन नहीं जुटाया जा सका तो इसके लिए सिर्फ न्यूज चैनल ही जिम्मेदार नहीं है।
      38 minutes ago · 

    • Kewal Krishna न्यूज चैनल तो टीआरपी के पीछे चलते हैं। यानी जनता के। अब तक वे ऐसे कार्यक्रम चुनते आए थे जिससे टीआरपी बढ़े। इस बार उन्हें टीआरपी के लिए जनता के पीछे दौड़ना पड़ा।
      37 minutes ago · 

    • Apurva Garg Bilkul , news channel ke sath bahut se sankeern mansikta ke log zimmedar hain jinhe manipur , India mei dikhayi nahi deta
      36 minutes ago · 

    • Apurva Garg trp ke peeche bhagte bhagte ye dikhai nahi de raha bharastachar ki bate banane wala Kumar biswas kaise jindak ke niji viman se yatra karta hai aur niji guest house ka atithya grahan karta hai
      34 minutes ago ·  ·  1 person

    • Kewal Krishna हो सकता है, लेकिन इनकी संकीर्णता दूर करने के लिए क्या किया गया। अन्ना एपीसोड के बाद इरोम के साथी ज्यादा सक्रिय हुए क्या ऐसा नहीं लगता। यह तीव्रता पहले दिखाई जानी थी।
      34 minutes ago · 

    • Apurva Garg Dikha to 11 baras se Irom ka sangharsh bhi nahi....Inke peeche na jindal hai na ambani
      32 minutes ago · 

    • Kewal Krishna जिंदल या अंबानी मजबूरी में अन्ना के पीछे हैं।
      31 minutes ago · 

    • Apurva Garg Kumar biswas jaiso ki kya 'majboori' hai pata nahi...
      30 minutes ago · 

    • Kewal Krishna बड़ी मुहिम में विसंगतियां हो सकती हैं। पर क्या पूरी मुहिम को खारिज कर दिया जाना चाहिए। जनमानस में क्या विसंगतियां है। क्या यह आंदोलन अन्ना से छिटककर जनता का आंदोलन नहीं हो गया।
      28 minutes ago · 

    • Apurva Garg Eak majboot lokpal to ban na hi cha hiye par usme corporate aur corporate media, ngo bhi shamil ho
      27 minutes ago · 

    • Kewal Krishna बेशक। सुझाव हो सकते हैं। दिक्कत ये है कि जो लोग अच्छे सुझाव दे सकते हैं वे मुहिम की आलोचना में ही व्यस्त हो गए हैं। जब जनता की इच्छा के अनुरूप लोकपाल बन जाए उसके बाद भी पूरी मुहिम के गुण-अवगुण की समीक्षा की जा सकती है। अभी सुझाव देने का वक्त है।
      24 minutes ago · 

    • Kewal Krishna क्या आप भी यह मानते हैं कि जनता उन्माद की वजह से अन्ना के पीछे हो ली
      22 minutes ago · 

    • Apurva Garg sawal hai jo corruption ki itni badi muhim chalane ka dava kar rahe hain wo corporate ki baat tak nahi karte ,jabki sabse badi jad corporate hai wahin inki core committe ke log corporate ka atithya grahan karte hain....
      22 minutes ago · 

    • Kewal Krishna इस बात पर क्या बड़ी बहस खुले और व्यापक मंच पर हुई है।
      21 minutes ago · 

    • Apurva Garg janta ke manch par ho rahi hai ab corporate media mei ye kitni bahas ki baat hai ...aap behtar samajh sakte hain....Kumar biswas ka issue 'chhattisgarh" ke alava jyada dekhne mei nahi aaya
      18 minutes ago ·  ·  1 person

    • Kewal Krishna अपूर्व भैया अब मैं दोनों हाथ खड़े कर समर्पण कर रहा हूं। आपसे चर्चा कर मेरा ज्ञान बढ़ा और मानसिक शुद्धि मिली। धृष्टता के लिए क्षमा चाहता हूं।
      17 minutes ago · 

    • Apurva Garg Bhaisaab aap agar aise kahenge to mera kya hoga....
      17 minutes ago · 

    • Apurva Garg shukriya aapka
      16 minutes ago · 

    • Kewal Krishna धन्यवाद
      16 minutes ago ·  ·  1 person

    • Kewal Krishna अपूर्व जी एक और बात। क्या इस इंटरव्यू को मैं अपने ब्लाग पर प्रकाशित कर सकता हूं।
      3 minutes ago ·