बुधवार, 31 अगस्त 2011

रूई का भालू (कविता)

मेरी बेटी
बहादुर बेटी
सुनो, समझाता हूं तुम्हें
इस दुनिया के बारे में


इसलिए नहीं कि
मैंने इसे समझ लिया ठीक-ठीक
कि खुद की
समझदारी की गफलत हो मुझे
बल्कि इसलिए
कि दुनिया के हर पिता की तरह
अपनी बच्ची को
समझाने की रस्म अदा कर लेना चाहता हूं मैं


यह तो तय है
नासमझ हो अभी तुम
हालांकि
नासमझ ही रहोगी हरदम
मेरे लिए/ पिता हूं
क्या पता समझदार हो जाओ तुम
मैं ही न रहूं


कि दुनिया वैसी तो
बिलकुल नहीं है बेटी
जैसी तुम्हारी मासूम पुतलियों में
नजर आ रही है मुझे
इस वक्त।
वहां जो फूल हैं
वो फूल नहीं हैं,
वहां जो तितलियां हैं
तितलियां नहीं हैं
वहां जो खुला आसमान है
वह न तो खुला है
और न ही आसमान है
वहां की हरी-भरी धरती
दरअसल
आग का गोला है
और उस गोले के भीतर
जो जलती रहती है हरदम
वह जिंदगी है, मेरी बिटिया


ये दुनिया है मेरी बच्ची
जहां चट्टानें हैं
असल में वे ही हैं
रूई के फोहे
और रूई के फोहे हैं जहां
वहीं पर चट्टानें हैं


ठीक तुम्हारी तरह
मेरी आंखों में
पल रहे सपने
हुआ करते थे इंद्रधनुषी कभी
सपने अब भी हैं
लेकिन रंग
काफूर हो गए कब, पता नहीं
इक दिन
जब मेरे पांव की जूतियों के बराबर
हो जाएंगी तुम्हारी जूतियां भी
तब
सपनों के उड़ रहे रंगों को
किसी तरह भींच लेने की जद्दोजहद
करनी होगी तुम्हें भी
मेरी तरह
और हो सकता है तुम भी
टूटती जाओ, बिखरती जाओ
टूटते-बिखरते सपनों के संग
तब मेरी यह बात
याद रखनी होगी तुम्हें
कि टूटते-बिखरते सपनों को
संजोए रखने
रंगों को मुट्ठियों में थामे रखने
और तेज आंधियों में भी
पांव जमाए रखने की जद्दोजहद ही
जिंदगी है मेरी बिटिया।


बस यूं समझ लो
तुम्हारे संग बतियाने वाला
तुम्हारी नन्हीं बांहों में
इठलाने वाला वह खूबसूरत भालू
हकीकत की दुनिया में
इतना मासूम नहीं
बल्कि हो सकता
खतरनाक बहुत


बड़ी राहत होती है
यह सोचकर
कि तुम्हारे घरौंदे को
अंकुरित होने में वक्त है अभी
यह बीज
खूबसूरत है बहुत
लेकिन जब पेड़ बनेगा
तब
फूल ही खिलेंगे जरूरी नहीं।
तुम्हारे चूल्हे में
जलने वाली आग
अभी तो बिना तपिश के भी
पका सकती है वह सब
जो तुम चाहो,
तुम्हारे छोटे-छोटे बरतनों में
झूट्टू-मुट्टू का गरमा-गरम भोजन
परोसा जा सकता है अभी तो
पूरी सृष्टि में
और सृष्टि को तृप्त करने के बाद भी
बचाया जा सकता है
ज्यों का त्यों।
इक रोज
जब आग सचमुच जलेगी
तब हो सकता है
खुद की तृप्ति के लिए
कम पड़ जाए पूरी सृष्टि।


मुझे माफ करना बेटी
दूधो नहाओ, पूतो फलो
और जुग-जुग जियो वाला आशीर्वाद
बांटते रहे मेरे पुरखे,
मुझ तक आते-आते
रिती रह गईं उनकी अंजुरियां
और जो है मेरे पास
वह यही है
कि ईश्वर ने जैसे तुम्हें यह दुनिया दी
इस दुनिया में
अपना रंग भरने का हौसला दे तुम्हें
वैसे ही।


हर प्राणी की तरह
मेरी भी तमन्ना है यही
कि फलता-फूलता रहे
वंश मेरा
और फलती-फूलती रहें
वे परंपराएं
जो पुरखों ने दी है मुझे।
तुम उनकी वंशज हो
जिन्होंने चुने थे लंबे रास्ते
जिन्होंने कीमती माना था
अपनों से ज्यादा दूसरों का जीवन
कहा था जिन्होंने-
सत्यं, शिवम्, सुंदरम्
जयते सत्यमेव
समझाया-सत्य ही सार
फहराईं आदर्शों की पताकाएं
जिनकी भस्म बिखरती रही
यहां से वहां तक
बनती रही खाद
उर्वरा होती रही धरती


-केवलकृष्ण

शनिवार, 13 अगस्त 2011

बच्चा लोग ताली बजाएगा

पिटारे में न तो सांप होता है और न ही डिब्बे में कोई नेवला। फिर भी सांप और नेवले के बीच एक धुंआधार टक्कर की उम्मीद बंधाकर मदारी अपना तमाशा पूरा कर ही लेता है। आखिर में वह कहता है-खेल खत्म, बच्चा लोग ताली बजाएगा।
बच्चा लोग जानते हैं कि वे छले गए और तब भी खुद के छले जाने पर ही तालियां पीटते रह जाते हैं, मुस्कुराते हुए।
जिंदगी शायद मदारी जैसी ही है।
मदारी के इस अजब तमाशे का गजब शब्दांकन  आलोक सातपुते की नयी किताब बच्चा लोग ताली बजाएगा है।आलोक सातपुते मुख्यतः लघुकथा लेखक हैं, इसलिए वे इस किताब को लघुकथाओं की मारक क्षमता से लैस कर पाएं हैं, हालांकि इसमें कहानियों का जो समुच्चय संग्रहित है वे सामान्य परिभाषा के तहत लघुकथा जैसे नहीं हैं। ये अलग-अलग कहानियां असल में अलग-अलग होते हुए भी एक दूसरे की पूरक हैं और मिलजुलकर एक महाकथा की बुनियाद रचती हैं। इस रूप में आलोक सातपुते की किताब एक महाकथा की बुनियाद है, इस बुनियाद पर इमारत की कल्पना पाठक अपने-अपने हिसाब से स्वयं करने के लिए स्वतंत्र हैं। वे इसकी दीवारों पर अपनी-अपनी कल्पना के रंग भरने के लिए स्वतंत्र हैं।
बच्चा लोग ताली बजाएगा-कई पात्रों के जरिए समाज के सामाजिक-आर्थिक मनोविज्ञान की पड़ताल करती है। ज्यादातर पात्र निम्न-मध्यमवर्गीय हैं।
आलोक की किताब का प्रकाशन डायमंड पाकेट बुक्स द्वारा किया गया है।

लेखक परिचय-
जन्म 26 नवंबर 1969। शिक्षा-एम.काम। देश के लगभग सभी प्रगतिशील पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।
 संग्रह का प्रकाशन-1.शिल्पायन प्रकाशन समूह दिल्ली के नवचेतन प्रकाशन से लघुकथा संग्रह अपने-अपने तालिबान का प्रकाशन।
2. सामयिक प्रकाशन समूह दिल्ली के कल्याणी शिक्षा परिषद से एक लघुकथा संग्रह वेताल फिर डाल पर प्रकाशित।
3. डायमंड पाकेट बुक्स, दिल्ली से कहानियों का संग्रह मोहरा प्रकाशित।
4. आत्मकथा कुण्ठाकथा शीघ्र प्रकाश्य।
अनुवाद-अंग्रेजी, उड़िया, उर्दू एवं मराठी भाषा में रचनाओं का अनुवाद एवं प्रकाशन।
संपर्क- एलआईजी 832, सेक्टर 5, हाउसिंग बोर्ड कालोनी, सड्डू, रायपुर। 

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

घर के पिछवाड़े में रोज धमाका होता है

पहाड़ मेरे घर के पिछवाड़े से शुरू होता
और फिर
कुंडली मारता हुआ
सामने से निकल जाता
बहुत दूर

पहाड़ की कुंडली में
एक अंडे की तरह था मेरा घर
पहाड़ बनने की संभावनाओं से भरपूर

उफ, वह अदभुत अनुभूतियां
अदभुत नगरी,
अदभुत लोग
शहर के दरवाजे पर
बैठा था विशाल सांड
यह सांड भी, वही पहाड़
बैलाडीला

डीले में लोहा
लोहा ही लोहा
कितना लोहा, क्या पता
बस खोदे जा रहे हैं लोग
कुदालों से, फावड़ों से और अब बारूदों से

जब विस्फोट होता तो थर्रा उठती पहाड़ी
घर के पिछवाड़े से होता हुआ आगे दूर तक
अंडा भी थोड़ा डोल जाता
भीतर बैठा मैं
अंदाज लगाता कि पहाड़
आज और कितना टूट गया होगा

पहाड़ पर आंवले के पेड़ थे
मीठे आमों के, चार-तेंदू के
वहां शेर थे, भालू थे
और शिकार पर निकले आदिवासी

ध्वस्त होते पहाड़ों पर
इतनी हरियाली थी कि
हजार-हजार आंखों में समाकर
बच जाती थी ज्यों की त्यों

बारिश के दिनों में
बादल उतर आते थे
बिलकुल नीचे, तलहटी तक
कई बार बादलों में पहाड़ ऐसा गुम हो जाता
जैसे एक जादूगर न गायब कर दी थी पूरी ट्रेन

बादल लाख गड़गड़ाए
पहाड़ टूटे नहीं
बादलों के पास नहीं था बारूद
और न ही थी, पहाड़ को ध्वस्त करने की कला
शायद बादलों को पता नहीं था
कि पहाड़ में कित्ता लोहा है

पता भी होता
तो वे लोहे का करते क्या
न तलवारें बनानी थी,  न टैंक
न रेल दौड़ानी थी, न बिजली
बादल तो बादल ही थे
लड़ते जरूर थे, पर निहत्थे
और फिर गले भी मिल जाते
बरसते थे जमकर
धरती हरिया जाती थी